खाली हो जाते हैं गांव, रह जाते हैं सिर्फ बूढ़े और लाचार
खाली हो जाते हैं गांव, रह जाते हैं सिर्फ बूढ़े और लाचार
अरुण साथी, शेखपुरा। पीढ़ी-दर-पीढ़ी बस मजदूरी। गांव खाली हो जाते हैं, रह जाते हैं सिर्फ बूढ़े और लाचार लोग। ईट भट्ठे पर काम के लिए पति-पत्नी ही नहीं, बच्चे भी साथ जाते हैं। साल के छह महीने भट्ठे पर काम करना है तो बच्चों की पढ़ाई-लिखाई की बात ही बेमानी ही है।
वैसे भी, इनकी जिंदगी ठीकेदार के रहमोकरम पर होती है। शेखपुरा में एक मजदूर का पैर सिर्फ इसलिए तोड़ दिया गया, क्योंकि उसने बाहर जाने से मना कर दिया था। यह सब आम बात है।
कार्तिक मास आते-आते गांव खाली हो जाते हैं। गंगटी के कृष्ण मांझी बताते हैं कि तब यहां सिर्फ बूढ़े, बीमार और लाचार लोग ही रह जाते हैं। मजदूर परिवार के साथ पंजाब, हरियाणा, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल आदि राज्यों में ईट भट्ठे पर चले जाते हैं।
बरबीघा थाना क्षेत्र के गंगटी निवासी छोटे मांझी ने बताया कि उनके दादा भी यही काम करते थे। फिर पिताजी और अब वे भी भट्ठे पर मजदूरी के लिए बाहर जा रहे हैं। अग्रिम के रूप में थोड़ी राशि मिल जाने से थोड़ी राहत मिल जाती है, पर लौटकर आते हैं तो मजदूरी की रकम खुराक (भोजन) आदि में एडजस्ट कर दी जाती है। हालांकि, जो थोड़ी ज्यादा मेहनत कर लेते हैं तो कमा भी लेते हैं। गांव के छोटे ठीकेदार को मेट बोलते हैं। वही बड़े ठीकेदार के संपर्क में रहता है। अग्रिम राशि देने से लेकर भट्ठे तक वहीं पहुंचाता है। यहीं के मेट उदय मांझी ने बताया कि वे वर्षो से बरबीघा के सकलदेव नगर मोहल्ला में कार्यालय संचालित करने वाले बड़े ठीकेदार के साथ काम कर रहे हैं। कोई मजदूर भागे नहीं, यह जिम्मेवारी मेट की होती है। भागने पर जुर्माना देना पड़ता है।
मजदूर नेता विजय कुमार बताते हैं कि चिमनी पर काम करने वाले मजदूरों के बच्चों का कोई भविष्य नहीं रह जाता है। उसे भी आगे चलकर यही करना है, यही नियति है। छह से आठ महीने तक पूरा परिवार बाहर काम करने भट्ठे पर चला जाता है तो बच्चे कैसे पढ़ेंगे। वे भी काम में माता-पिता का हाथ बटाते हैं। थोड़ा बड़ा होते ही इसी काम में लगा दिया जाता है। उन्होंने बताया कि कुछ माह पहले ही दादन (अग्रिम राशि) विवाद में वृंदावन गांव में एक मजदूर की हत्या कर दी गई, लेकिन यह सब देखने की फुर्सत किसे है।
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